एक गाँव में एक बुढ़िया माँ अपने दो बेटों के साथ रहती थीं । बच्चों के पिता जन्म के कुछ दिन पूर्व चल बसे। 2 भाई को पालने के जिम्मेदारी माँ ...
एक गाँव में एक बुढ़िया माँ अपने दो बेटों के साथ रहती थीं । बच्चों के पिता जन्म के कुछ दिन पूर्व चल बसे। 2 भाई को पालने के जिम्मेदारी माँ की ही थी।
गरीबी इतनी थी की पिता की फोटो भी नहीं हैं और पिता कैसे दिखते थे ये भी पता नहीं। घर नहीं और घर का मुखिया भी नहीं। एक माँ 2 बच्चों के साथ।
गांव के बाहर एक झोपड़ी बनाई माँ ने। और कभी घबराई नहीं और फूल से शराब बनाने का काम शुरू किया। दो वक्त की रोटी मिले बच्चों को ये ही जरूरत थी बस।
जब मैं छोटा था तो दुकान के समय रोता और माँ शराब की 2 बूंद मुंह मे डाल देती ताकि सो जाऊ।
थोड़ा बड़ा हुआ तो ग्राहकों के लिए दौड़ का मूंगफली या नाश्ते की व्यवस्था करता था।माँ ने ये तय कर रखा था कि दोनों बच्चे स्कूल जरूर जाएंगे। पेंसिल नहीं कॉपी नहीं बस पढ़ने में मजा आता था। पहले दो बच्चे थे हम जो ट्राइबल के थे और स्कूल जाते थे। माँ अपनी समझ से समझाती थी पढ़ाई के बारे में।
परीक्षा के समय तक पेंसिल की व्यवस्था हुई।एक बार मैं पढ़ रहा था और ग्राहक ने मूंगफली लाने को कहा तो मैंने उसे सीधे मना कर दिया।हंसी उड़ाते हुए बोला " पढ़कर डॉक्टर और इंजीनियर बनेगा क्या?" मुझे आज तक ये बात याद हैं और लगातार चुभती रही पर माई ग्राहक से बोली हाँ बेटा ये बनेगा।
फिर मैंने सब कुछ पढ़ाई में लगाना तय किया और गांव से 150 km दूर एक CBSC स्कूल में पढ़ने का अवसर मिला तो माँ मुझे छोड़ने आयी और छोड़कर लौटते समय हम दोनों खूब रोये। पर उसने मुझे Bye कर ही दिया।
इस अवसर को मैं छोड़ना नहीं चाहता था और जी तोड़ मेहनत करने लग गया। बायो लेकर 12 वीं में 97% आये और मेडिकल में सिलेक्शन हुआ। मुंबई के GS कॉलेज में खूब सारी स्कॉलरशिप के सहारे MBBS की पढ़ाई शुरू की। हॉस्टल का खर्च आदि भी निकल जाता।
माँ शराब ही बनाती रही क्योंकि यही चारा था। फाइनल ईयर में मैंने आईएएस की तैयारी शुरू की और अंत मे दोनों हाथों में दो उपलब्धि। एक डॉक्टर की और दूसरी ओर आईएएस की अच्छी रैंक।
माँ को तो तहसीलदार क्या होता हैं ये भी पता नहीं था ।उसकी छोटी सी दुनिया और 2 बेटे बस।जब मैं घर पहुंचा तो कुछ महत्वपूर्ण लोग आए बधाई देने। कलेक्टर और स्थानीय अधिकारी।
माँ को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या? मैंने बताया कि डॉक्टर बन गया तो खुश हुई। फिर कहा कि अब मैं प्रैक्टिस नहीं करूँगा क्योंकि कलेक्टर बन गया तो वो चुप रही। उसे और पूरे गांव को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है बस ये लगा कि उनका राजू कुछ बड़ा बन गया हैं और लोग बधाई देने आए हैं।
यहां तक कि कुछ गांव वाले लोगों ने मुझे कंडक्टर बनने की बधाई भी दी
अब मैं कलेक्टर हूँ और आदिवासी बच्चों के लिए मूलभूत व्यवस्था और जागरूकता में लगा हुआ हूं।
मैं उन बच्चों को बताता हूँ कि रास्तें की बाधा नहीं रोकती। नदी में नहाने से पेड़ पर चढ़ने से और आम की डंडी के खेल से मैं स्ट्रांग और मजबूत बना।
मेरी ताकत मेरी माँ ही हैं और गांव वाले भी ,क्योंकि वो समान रूप से गरीब हैं समान संघर्ष करते हैं। वे वही खेलते हैं जिनसे मैंने खेला इसलिए मुझे गरीबी कभी महसूस नहीं हुई।
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